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लेखनी कहानी -06-Apr-2023 अभिशाप बना वरदान

भाग 2 
गतांक से आगे 

इंद्र ने उर्वशी से कहा "हे उर्वशी , तुमने मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं दिया । क्या तुम मेरा मनोरथ सिद्ध करोगी" ? 

उर्वशी भी तो यही चाहती थी कि उसे भी इस समय किसी पुरुष श्रेष्ठ का सानिध्य मिले । उसे लगा कि देवराज प्रत्यक्ष कहने के बजाय अप्रत्यक्ष रूप से उसे "काम भोज" का निमंत्रण दे रहे हैं तो इससे उसका भी तो मनोरथ सिद्ध हो सकेगा । वह भी आज जी भरकर "काम रस" का आस्वादन करना चाहती थी । आज उसे जितनी प्यास उपजी थी शायद इतनी प्यास तो उसे पहले कभी नहीं उपजी थी । उर्वशी के अंग अंग से सहमति प्रकट हो रही थी । इसके बावजूद उसने गर्दन नीची करके अपनी सहमति दे दी । 

उर्वशी के हां कहने से देवराज इंद्र प्रसन्न हो गये । उसने उर्वशी को लाख लाख धन्यवाद कहते हुए उसका मस्तक चूम लिया । फिर कहने लगे "हे सुमुखि, मैं बता नहीं सकता हूं कि तुमने हां कहकर मेरा कितना उपकार किया है । मैं आज बहुत प्रसन्न हूं । आज अर्जुन मेरा अतिथि है । दोपहर को नृत्य के समय मैंने अर्जुन को तुम्हें तकते हुए देखा था । ऐसा लगा कि अर्जुन का मन तुम पर आ गया है लेकिन वह संकोच वश कह नहीं पा रहा है । शायद उसे पता नहीं है कि स्वर्ग लोक में सबका जीवन उन्मुक्त है । यहां पर कोई रिश्ता नाता नहीं होता है । यहां पर केवल एक ही नाता है और वह है स्त्री और पुरुष का । कोई भी स्त्री किसी भी पुरुष के साथ समागम कर सकती है । इसी तरह कोई भी पुरुष किसी भी स्त्री के साथ सो सकता है । कोई बंधन नहीं है , कोई रोक टोक नहीं है । इसलिए हे परम सुंदरी , जाओ, और आज की रात अर्जुन का समस्त मनोरथ पूर्ण करो । आज की रात उसे इतना प्यार करो कि वह इस रात को जिन्दगी भर भूलने न पाये । प्रेम की बदली बनकर उस पर बरस जाओ । बस, इसी काम के लिए तुम्हें बुलाया था" । इंद्र ने उर्वशी को बहुत सारे उपहार देकर विदा किया । 

उर्वशी को अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था । "कहीं उसने सुनने में गलती तो नहीं कर दी ? क्या अर्जुन उसे चाहते हैं ? क्या उनके मन में मेरे लिये इतना प्रेम है ? देवराज ने तो मेरा मनोरथ सिद्ध किया है । मैं तो समझी थी कि देवराज मुझे भोगना चाहते हैं मगर उन्होंने तो आज उसके सकल मनोरथ पूरे कर दिये हैं । उसे तो मनचाहा वर प्राप्त हो गया है । आज तो उसकी वासनाओं की पूर्ति होने वाली है । वो वासना जो सैकड़ों नाग बनकर उसे डस रही है , आज उसे सागर की तरह दुग्ध का भण्डार मिल गया है । जब से उसने अर्जुन को देखा है तब से ही उसके मन में काम का अंकुर फूट गया है जो अब बड़ा होकर कामरूपी वट वृक्ष बन गया है । उसके अंग प्रत्यंग से काम ज्वाला निकल रही है जिससे वह भस्म हुई जा रही है । वह कब से अपनी वासना की पूर्ति के लिए तड़प रही है, ये बात देवराज कैसे जानें ? पर दैव से ही सही, आज उसकी अभिलाषा पूर्ण होने का अवसर आ गया है" । प्रसन्नता के कारण उसके कदम लड़खड़ाने लगे । काया रोमांच से थर थर कांपने लगी । हृदय में काम का सागर हिलोरें मारने लगा । 

उसने अपनी परिचारिका को आज्ञा दे दी कि तुरंत समस्त सौन्दर्य विशेषज्ञों को बुलवा लें जिससे उसका नख से लेकर शिख तक सौन्दर्य निखारा जा सके । आज उसका मनवांछित फल प्राप्त होने जा रहा है । परिचारिकाओं को बुलाकर वह पुन: स्नान हेतु जल प्रपात के नीचे खड़ी हो गई । परिचाराकाऐं उसे अच्छे से नहलाने लगीं । तन बदन में ऐसा कोई अंग न रहे जहां से जरा सी भी अप्रिय गंध आ सके । चंदन के उबटन से उसका स्नान हुआ और केसर आदि के मिश्रण से उसके "अंग विशेष" चमकाये गये । दूध , दही और घी के मिश्रण से अंग अंग चिकने बनाये गये । 

इतने में सब सैरिन्ध्री आ गई और वे उर्वशी के साज श्रृंगार में जुट गई । केशों में केवड़ा और चमेली का सुगंधित तेल रमाया गया । सुवासित धूप दीप से उन्हें और सुगंधित बनाया गया । घंघराले बालों में नाना भांति के पुष्प सजाकर उनकी वेणी बनाई गई । भौंहों को धनुषाकार मुद्रा में तराशा गया । आंखों में काजल और सुरमा लगाया गया । पलकों पर "मसकरा" और अलकों पर हलका हल्का मेकअप गजब ढा रहा था । उसके गाल तो प्राकृतिक रूप से इतने सुन्दर थे और ऐसे शोभायमान हो रहे थे जैसे पूर्णिमा के चांद पर मक्खन में सिन्दूर मिला कर लेप लगा दिया हो । गालों में उभय पक्ष में पड़ने वाले दो गड्ढे जैसे कामदेव की जान ही ले लेंगे । होंठ दहकते अनार की तरह लाल सुर्ख थे जैसे पृथ्वी के सभी पुरुषों के हृदय का रक्त पीकर आये हों । शुक सदृश नासिका की तुलना किसी भी पदार्थ से नहीं की जा सकती थी । कुम्भ सदृश ग्रीवा पर अनेक मणि माणिक्य जनित हार ऐसे शोभायमान हो रहे थे जैसे हजारों शेषनागों पर स्फटिक मणि सुशोभित हो रही हों । 

आनंद अतिरेक और काम के निरंतर प्रवाह के कारण उभय उरोज इतने विशाल हो गये थे कि वे आपस में एक दूसरे से सट गये थे और दोनों उभार हिमालय और विंध्याचल पर्वत की तरह अटल , उत्तंग, उन्मत्त होकर अपने यश का दसों दिशाओं में दिग दिगंत यशोगान कर रहे हों । जैसे दोनों में प्रतिस्पर्धा हो रही हो कि कौन कितना विस्तार प्राप्त कर सकता है । उन विशाल वक्षों पर दो कुच ऐसे सुशोभित हो रहे थे जैसे हिमालय और विन्ध्याचल पर्वत पर दो ऐवरेस्ट की चोटियां लाकर रख दी हों । 

निष्पाप कटि प्रदेश पृथ्वी की तरह विस्तार लिये हुए था और इतना चिकना था कि जैसे कमल दल पर पानी की एक बूंद भी ठहरने के लिए लालायित रहती हो । स्वर्ण जटित मेखला ने इस कटि प्रदेश को ऐसे समृद्ध शाली बना दिया था जैसे पृथ्वी फसल में बालियां लगने पर समृद्ध शाली हो जाती हैं  । नाभि की तुलना गंगा नदी में पड़ने वाले भंवर से की जा सकती है जिसमें सयाने से सयाना व्यक्ति भी गिरे बिना रह ही नहीं सकता है । शायद नाभिस्थल सभी प्रेमियों की एकमात्र शरण स्थली हो जहां जाकर वे स्वयं को सुपुर्द कर देते हों । क्योंकि प्रेम की परिणति समर्पण में ही है जहां प्रेमी खुद को प्रेमिका की बांहों में पूर्ण समर्पित कर देता है । अगर प्रेमी इस स्थिति से उबरना भी चाहे तो भी यह नाभि उसे प्रणय भंवर में ऐसा फंसा देती है कि कोई प्रेमी प्रणय सागर में गोता लगाये बिना बाहर आ ही नहीं सकता है । वैसे , कौन ऐसा प्रेमी है जो यौवन सागर में डूबे बिना ही बाहर आना चाहता हो ? 

नाभि के नीचे त्रिबली इस तरह सुशोभित हो रही थी जैसे संसार के "तीन गुण" वहां उपस्थित हो गये हों और उनमें जबरदस्त प्रतिस्पर्धा चल रही हो । रोम विहीन भग प्रदेश की शोभा का वर्णन सैकड़ों कालिदास भी नहीं कर सकते हैं, मुझ मूढमति की तो सामर्थ्य ही कहां है ? उभारों का वजन इतना अधिक हो गया था कि उर्वशी को झुकना पड़ रहा था । दो दो विशाल पर्वतों के भार को सहने के लिये नितम्बों का विशाल होना स्वाभाविक भी था आवश्यकता भी थी अन्यथा वे मदमत्त उरोज कैसे स्थिर रहते ? इसलिए इसी अनुपात में उसके नितम्ब भी उतने ही विशाल हो गये थे । इसके अतिरिक्त नितम्बों को ज्ञात है कि उन्हें हजारों हाथियों के बल वाले अर्जुन के भार और वेग दोनों को सहन करना है इसलिए वे इस आघात को झेलने के लिए पूरी तरह तत्पर हो गये थे और उन्होंने उसी के लिए अपनी आकृति भी बढ़ा ली थी । 

दोऊ जघन कदली सदृश निष्कलंक और चिकनी थीं । मजाल है कि उन पर नजर भी टिक जाये , जल की तो बिसात भी क्या है ? बहुत बारीक से अधो वस्त्र में उनका सौन्दर्य और भी कमनीय हो चला था । पैर आलते से लाल सुर्ख थे और हाथों में मेंहदी सुशोभित हो रही थी । श्रंगार बालाओं ने उर्वशी का इस तरह श्रंगार किया था कि उसके सम्मुख सैकड़ों रति भी कांतिहीन लग रही थी । उर्वशी के इस निर्दोष रूप यौवन से साक्षात शिवजी भी स्वयं को नहीं बचा सकते थे तो भला अर्जुन का तो कहना ही क्या ? लगता है कि आज उर्वशी उसकी बलि लेकर ही रहेगी । एक तो अनुपम सौन्दर्य और उस पर काम का अतिरेक ! सोने पर सुहागा की उपमा इस अवस्था के लिए बहुत छोटी जान पड़ रही थी । 

उर्वशी के अंग अंग से काम ज्वाला प्रस्फुटित हो रही थी जिसमें हजारों हजार कामदेव कीट पतंगों की तरह जल कर भस्मीभूत हो रहे थे । उसका मदन मंदिर ऐसे सुशोभित हो रहा था जैसे वह स्वर्ग लोक का द्वार हो । अभिसारिका बनकर उर्वशी समागम की इच्छा लिये हुए अर्जुन के शयन कक्ष की ओर चली । उत्साह, उमंग और उल्लास के कारण उसके भार में इतनी वृद्धि हो गई थी कि एक एक कदम उठाना उसके लिये बहुत भारी हो रहा था । इसके अतिरिक्त उसकी सखियां उसे नाना भांति छेड़कर उसका कामोद्दीपन कर रही थीं । उसके बदन की सुगंध दूर तक फैल रही थी जिससे हजारों प्रेमियों के प्राण उसके कदमों में दम तोड़ रहे थे । ऐसा लग रहा था जैसे कोई अखाड़ा तैयार हो रहा है जिसमें सौन्दर्य और पुरुषार्थ नामक दो नामी गिरामी मल्लों के मध्य भयानक युद्ध होने वाला हो । 

क्रमश: 

श्री हरि 
7.4.2023 

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2 Comments

Gunjan Kamal

07-Apr-2023 05:12 PM

👌👏

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Hari Shanker Goyal "Hari"

07-Apr-2023 05:54 PM

🙏🙏

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